किसी सूरत सहर नहीं होती रात इधर से उधर नहीं होती ख़ौफ़ सय्याद से न बर्क़ का डर बात ये अपने घर नहीं होती एक वो हैं कि रोज़ आते हैं एक हम हैं ख़बर नहीं होती अब मैं समझा हूँ काट कर शब-ए-ग़म ज़िंदगी मुख़्तसर नहीं होती कितनी पाबंद-ए-वज़्अ है शब-ए-ग़म कभी ग़ैरों के घर नहीं होती कितनी सीधी है राह-ए-मुल्क-ए-अदम हाजत-ए-राहबर नहीं होती सुन लिया होगा तुम ने हाल-ए-मरीज़ अब दवा कारगर नहीं होती अर्श मिलता है मेरी आहों से लेकिन उन को ख़बर नहीं होती