क़िस्मत में दर्द है तो दवा ही न लाऊँगा आईना-ए-यकीं पे सियाही न लाऊँगा या तो मिरे बयान पे मुंसिफ़ यक़ीं करे या फिर सज़ा लिखे मैं गवाही न लाऊँगा इस दौर-ए-ना-शनास में कुछ भी कहूँ मगर अब दास्ताँ में ज़िक्र-ए-वफ़ा ही न लाऊँगा अपनों से जंग है तो भले हार जाऊँ मैं लेकिन मैं अपने साथ सिपाही न लाऊँगा दोश-ए-करम पे बार है जब हर्फ़-ए-मुद्दआ' फिर मैं ज़बाँ पे हर्फ़-ए-दुआ ही न लाऊँगा जब तुम सफ़-ए-अदू में चले जाओगे तो फिर दिल में मलाल-ए-कोर-निगाही न लाऊँगा मैदान-ए-कार-ज़ार में 'अख़्तर' कभी भी मैं ख़ौफ़-ए-सिनान-ए-ज़िल्ल-ए-इलाही न लाऊँगा