कितना सादा शबाब लगती हो एक ताज़ा गुलाब लगती हो आप हुस्न-ओ-जमाल की सूरत एक शाइ'र का ख़्वाब लगती हो आसमाँ के सभी सितारों में इक तुम्हीं आफ़्ताब लगती हो क्यूँ नशा बन के चढ़ गईं मुझ पर हाँ पुरानी शराब लगती हो ज़ुल्फ़ उलझी हुई है सावन सी बरसा बरसा शबाब लगती हो जिस पे हर बार मैं अटकता हूँ वो सवाल ऐ हिसाब लगती हो चाँद छुपता है तुम से शर्मा कर कितनी तुम ला-जवाब लगती हो एक मुद्दत दबी दबी रह कर आज तुम इंक़लाब लगती हो मुझ को देखा जो साथ ग़ैरों के तुम तो जल कर कबाब लगती हो अब ख़यालों में भी नहीं हो तुम इक मुकम्मल अज़ाब लगती हो तुम ने 'ज़ुहैब' को जो ठुकराया ख़ुद भी ख़ाना-ख़राब लगती हो