कितने अरमाँ चश्म-ए-तर से बह गए प्यार के मोती बिखर कर रह गए अश्क पलकों पे लरज़ते रह गए एक अफ़्साना अलम का कह गए तुम तो बनते थे शरीक-ए-ज़िंदगी दो क़दम ही साथ चल कर रह गए उन का ग़म दिल में छुपाना ही पड़ा दिल पे जो गुज़री वो हँस कर सह गए कौन जाने मंज़िलों की खोज में क़ाफ़िले कितने भटक कर रह गए दिल किसी का तोड़ने से पहले सोच कितने मोती चश्म-ए-तर से बह गए कर रहे थे हसरतों का तज़्किरा लोग समझे शे'र 'ज़ाहिद' कह गए