तुझ को 'ज़ाहिद' ये अब हुआ क्या है बैठे बैठे ये सोचता क्या है छोड़िए गुल-रुख़ों की बातों को उन की रंगत में अब धरा क्या है हादसों को गले लगाता हूँ और तक़दीर में लिखा क्या है क्यों ये फिरता है दर-ब-दर मारा कौन जाने इसे हुआ क्या है ख़स्ता-हाली पे मेरी हँसते हो ये न पूछा कि माजरा क्या है एक बुत से हो आश्ना 'ज़ाहिद' मैं नहीं जानता ख़ुदा क्या है