कितने उजड़ गए हैं चमन कू-ए-यार में कैसी हवाएँ अब के चली हैं बहार में दुनिया हक़ीर जान के नज़रें न फेर ले थोड़ी सी लाज़मी है अना इंकिसार में ज़र्रों से आ रही है वफ़ा-दारियों की बू शायद मिरा लहू है तेरी रहगुज़ार में इल्ज़ाम आइनों पे लगाते हो किस लिए चेहरा अटा हुआ है तुम्हारा ग़ुबार में मांडू की सरज़मीन को समझो न बे-समर तारीख़ के गुलाब हैं उजड़े दयार में आँखों में क़ैद करने की कोशिश फ़ुज़ूल है आँसू नहीं रहे हैं मिरे इख़्तियार में शायद कि कल ज़मीं पे खिलें अम्न के गुलाब हर पल गुज़र रहा है इसी इंतिज़ार में 'सरवत' जहान-ए-इल्म में कुछ कम-नसीब लोग अब तक पड़े हुए हैं जहालत के ग़ार में