कितनी कम-बख़्त ये जवानी है आज तक कोई बात मानी है मुफ़लिसी और नौजवानी है किस क़दर दुख-भरी कहानी है उन की आमद है सोचता हूँ बात क्या छुपानी है क्या बतानी है ख़दशा-ए-मर्ग तो है ला-हासिल मौत तो मौत को भी आनी है अश्क समझो तो ख़ून है दिल का कुछ न समझो तो सिर्फ़ पानी है उन के होंटों से फूल झड़ते हैं बात करना भी गुल-फ़िशानी है हुस्न तो है ज़ुहूर-ए-बर्क़-ए-तूर इश्क़ इक आतिश-ए-बुतानी है शैख़ को क्या पिला दिया 'शाहिद' किस क़दर उस को सरगिरानी है