शिद्दत-ए-ग़म से मिरी जान पे बन आई है और उधर उस ने न आने की क़सम खाई है देख ले क्या बनी दुर्गत तिरे दीवाने की तिफ़्ल हैं संग-ब-दस्त शहर तमाशाई है मैं दुआ माँगूँ ख़ुदा उस को अमाँ में रक्खे और उसे मेरे तड़पने की अदा भाई है उस के हैं सारे तकल्लुफ़ रुख़-ए-ज़ेबा के लिए ज़ुल्फ़ कब उस ने मिरे वास्ते सुलझाई है ज़हर-ए-ग़म मुझ को पिलाता रहा जुरआ' जुरआ' वाह क्या कहना क्या अंदाज़-ए-मसीहाई है तू ने की ज़िद तो सुना दी थी कहानी अपनी हम-नशीं आँख तिरी किस लिए भर आई है कर लिया रौनक़-ए-दुनिया से किनारा 'शाहिद' इक तिरी याद है ओर गोशा-ए-तन्हाई है