कोई देखे तो सही ये सितम-आराई भी ख़ुद तमाशा भी हूँ मैं और तमाशाई भी राज़ है उन का अजब उन की ये यकताई भी मैं तमन्ना भी हूँ और उन का तमन्नाई भी हाथ फैलाऊँ तिरे होते मैं किस के आगे इस में मेरी ही नहीं है तिरी रुस्वाई भी अक़्ल वालों की निगाहों पे पड़े हैं पर्दे पर्दा-ए-इश्क़ में दूरी भी है यकजाई भी हाल हम अहल-ए-ख़िरद का है ज़माने में अजब हम शनासा भी हैं महरूम-ए-शनासाई भी वो तो हर हाल में मौजूद है शह-रग के क़रीब इस को कहते हैं कहीं आलम-ए-तन्हाई भी कोई समझे भी तो क्या उस को समझ पाए 'ग़ुबार' पर्दा-दारी भी है और अंजुमन-आराई भी