कोई जला हुआ मंज़र दिखाई देता है सड़क पे जो भी है बे-घर दिखाई देता है तराशता है मिरे फ़िक्र की चटानों को छुपा है मुझ में जो आज़र दिखाई देता है कभी कभी मुझे सुन लगता है तमाम बदन ज़मीं पे चलता हुआ सर दिखाई देता है वो जब भी मुझ को बचाता है ग़र्क़ होने से वजूद अपना समंदर दिखाई देता है न कोई जिस्म न चेहरा न आँखें सड़कों पर गुज़रते सायों का लश्कर दिखाई देता है