वो जागता है अभी तक ग़ुनूद में है कहाँ कमी थकन की मगर इस वजूद में है कहाँ करे रुकू तो टाँगों पे कपकपी छाए वो वलवला वो जवानी सुजूद में है कहाँ मैं अपने पाँव की मिट्टी पे जम के बैठा हूँ जो मेरा कुंज है तेरी हुदूद में है कहाँ ये लुत्फ़-ए-ख़ाक-नशीनी भी आरज़ी शय है कि मुस्तक़िल सी बक़ा हस्त-ओ-बूद में है कहाँ मैं अपना कर के ख़सारा हूँ मुतमइन जैसे वो नफ़ा मुझ को मिला तेरे सूद में है कहाँ सुलग रहा है जिगर ख़ुश्क लकड़ियों की तरह धुआँ जो दिल से उठा और दूद में है कहाँ करो तलाश मज़ामीर-ए-गुम-शुदा फिर से मज़ा वो उन सा किसी भी सुरूद में है कहाँ ज़मीं से ता-ब-फ़लक 'आफ़्ताब' छाया है हुनर ये और किसी के वजूद में है कहाँ