कोई ख़्वाहिश कोई अरमाँ कोई हसरत न रहे इतना रोएँ कि हमें कोई शिकायत न रहे ग़ैर-मुमकिन है मगर सई तो कर के देखें शो'ला-ए-ज़ब्त की फिर दिल में हरारत न रहे दूर इतने न रहो तुम कि बहुत मुमकिन है मुझ को इक रोज़ तुम्हारी भी ज़रूरत न रहे हम से है दोज़ख़-ओ-जन्नत का तमाशा या-रब हम न हों गर तो कोई उन की हक़ीक़त न रहे उन को इंसान 'जहाँगीर' कहूँ मैं कैसे चाहते हैं जो ज़माने में मोहब्बत न रहे