कोई किनाया नहीं कोई इस्तिआ'रा नहीं मैं हर्फ़ हर्फ़ मगर अब भी आश्कारा नहीं मिरी निगाह की वुसअ'त पे रोज़ गिरता है वो आसमान कि जिस में कोई सितारा नहीं नदी बिछड़ के समुंदर से टूट जाएगी मैं एक बार कहूँगा उसे दोबारा नहीं उछालता हूँ लहू मैं भी आसमाँ की तरफ़ जो मेरा सर भी क़लम हो तो कुछ ख़सारा नहीं ये इंकिशाफ़ है 'रौनक़' अजीब तेशे का किसी भी संग के सीने में इक शरारा नहीं