कोई सूरत कोई तदबीर निकाली जाए आबरू इश्क़-ओ-मोहब्बत की बचा ली जाए कौन देता है वफ़ाओं का वफ़ाओं से जवाब अब तो बेहतर है कि ये रस्म उठा ली जाए फ़ी-ज़माना है यही मस्लहत-ए-अक़्ल-ओ-शुऊर दिल में ख़्वाहिश कोई उभरे तो दबा ली जाए सामने बच्चों के दोहराओ न पिछले झगड़े नन्हे ज़ेहनों में ये बुनियाद न डाली जाए मशवरा मेरा बस इतना है नई नस्लों को अपने अज्दाद की पगड़ी न उछाली जाए मेरे अल्लाह मुझे इतना तवंगर कर दे दर से मेरे कभी ख़ाली न सवाली जाए कोई मिलता ही नहीं वाक़िफ़-ए-आदाब-ए-जुनूँ अब तो बस्ती ही अलग अपनी बसा ली जाए उस तरफ़ वो तो इधर हम हैं परेशाँ 'बेबाक' ख़्वाहिश-ए-दीद किसी तौर न टाली जाए