कोई तो कहे बात क़फ़स में गुल-ए-तर की हम ने तो गुलिस्ताँ में भी काँटों पे बसर की आँखों में अलाव से दहकते हैं शब-ओ-रोज़ दिल खोल के रोए हैं न भरपूर नज़र की गुलचीं भी तही-दस्त है सय्याद भी हैराँ क्या धूम बहारों में मची शो'बदा-गर की दामन ही नहीं आज सरापा है दरीदा सौ ज़ख़्म उठाए हैं जो इक बार नज़र की ये ज़ख़्म हुआ मिस्र के बाज़ार का यूसुफ़ क़ीमत ना पड़ेगी यहाँ कुछ अर्ज़-ए-हुनर की इस पेड़ का ऐ संग-ज़नो फल तो उठाओ अब भी पस-ए-दीवार है रौनक़ मिरे घर की तुम रात की घमबीर सियाही में घुले हो कब फूल खिलाए कहीं ताईद-ए-सहर की रौनक़ भी गई दिल का भरम भी गया 'सरमद' अब तो यहाँ डसती हुई वहशत है खंडर की