कोरे काग़ज़ पे कई नक़्श बनाए मैं ने और फिर इक के सिवा सारे मिटाए मैं ने गुल-ए-ख़ुद-रौ की महक जैसे किसी जंगल में हाए वो गीत जो तन्हाई में गाए मैं ने चमन-ए-फ़न में रहेंगे जो हमेशा शादाब ऐसे गुल-बूटे भी चंद एक उगाए मैं ने ख़ून इंसान का पानी की तरह बह निकला उफ़ तअ'स्सुब के वो हंगामे उठाए मैं ने अपनों से बढ़ के मदद-गार-ओ-मुआविन जो थे दहर में ऐसे भी देखे हैं पराए मैं ने हाए क्या चीज़ थी ऐ राह-ए-मोहब्बत तू भी काँटे जितने थे वो पलकों से उठाए मैं ने हुस्न के सैंकड़ों रुख़ तुम से अभी मख़्फ़ी हैं हुस्न के रूप हज़ारों ही दिखाए मैं ने एक भी तेरी नज़र से नहीं गुज़रा ऐ दोस्त कितने ऐवान तख़य्युल के सजाए मैं ने शायरी बस में मिरे आए तो जानूँ 'मग़मूम' उम्र-भर इस के बहुत नाज़ उठाए मैं ने