क्यूँ कहूँ कोई क़द-आवर नहीं आया अब तक हाँ मिरे क़द के बराबर नहीं आया अब तक एक मुद्दत से हूँ मैं सीना-सिपर मैदाँ में हमला-आवर कोई बढ़ कर नहीं आया अब तक ये तो दरिया हैं जो आपे से गुज़र जाते हैं जोश में वर्ना समुंदर नहीं आया अब तक होंगे मंज़िल से हम-आग़ोश ये उम्मीद बंधी रास्ते में कोई पत्थर नहीं आया अब तक क्या ज़माने में कोई गोश-बर-आवाज़ नहीं कोई भी दिल की सदा पर नहीं आया अब तक जाने क्या बात है साक़ी कि तिरी महफ़िल में जो गया बढ़ वो पलट कर नहीं आया अब तक इंतिहा ये है कि पथरा गईं आँखें अपनी सामने वो परी-पैकर नहीं आया अब तक क्या करिश्मा है दुर-ए-अश्क-ए-मोहब्बत अपना सदफ़दुर-ए-चश्म से बाहर नहीं आया अब तक मुंतज़िर हूँ मैं कफ़न बाँध के सर से 'आजिज़' सामने से कोई ख़ंजर नहीं आया अब तक