क्यूँ मुझे महसूस ये होता है अक्सर रात भर सीना-ए-शब पर चमकता है समुंदर रात भर एक बर्क़-ए-ज़र्द लहराए तो क़िस्सा ख़त्म हो क्यूँ डराए रखता है मुझ को मिरा घर रात भर अब रहेगा ज़ीस्त में लम्हा-ब-लम्हा इक अज़ाब अब खुलेगा इक फ़ुसूँ मंज़र-ब-मंज़र रात भर मैं हूँ क्या और क्या मिरी पहचान अब उस के बग़ैर मैं जिसे सीने में रखता हूँ सजा कर रात भर इम्तिहाँ होने न होने का न हो दरपेश 'तूर' इक सदा सी गूँजती है मेरे अंदर रात भर