क्यूँ शहर उजाड़ सा पड़ा था क्या सर पे पहाड़ आ पड़ा था क़ुदरत तो गवाह है कि मैदाँ हारे थे कि हारना पड़ा था थी बर्फ़ सी रात और लश्कर बे-ख़ेमा ओ बे-रिदा पड़ा था क्या भीड़ थी कल और आज देखा सुनसान वो रास्ता पड़ा था क्यूँ ख़ेमों की आग बुझ गई थी ये राख से पूछना पड़ा था वो शाम-ए-सुकूत भी अजब थी क़ातिल को पुकारना पड़ा था था माल दुकाँ में हस्ब-ए-तख़्सिस तह-ख़ाना मगर अटा पड़ा था इस बाब-ए-रसद से रिज़्क-ए-त़क़्दीर ले आए जो कुछ गिरा पड़ा था अपने ही मुजस्समे को तोड़ा हाथ अपना ग़लत भी क्या पड़ा था