कुछ देर हुई है कि मैं बेबाक हुआ हूँ जब अपने ही माज़ी पे अलमनाक हुआ हूँ थी फ़िक्र जो महदूद तो था ख़ाक का ज़र्रा जब आँख खुली ज़ीनत-ए-अफ़्लाक हुआ हूँ क़ब्ल इस के कि बाहर से कोई आ के बताए मैं अपने ही ख़ुद आप में चालाक हुआ हूँ क्या उन को ख़बर है जो फ़लक कहते हैं मुझ को मैं अपनी बुलंदी के लिए ख़ाक हुआ हूँ जब चाहे उतर जाए तिरी रूह से 'तमजीद' कहता है तिरा जिस्म कि पोशाक हुआ हूँ