कुछ गर्दिश-ए-ज़माना कुछ आरज़ू करे है बाक़ी जो बच रहे है वो काम तू करे है ख़ून-ए-जिगर करे है दिल को लहू करे है ये दौर आदमी को यूँ सुर्ख़-रू करे है मोती है ये पलक पर रुख़्सार पर है शबनम गिर कर ज़मीं पे आँसू बे-आबरू करे है ज़िंदाँ की दिल-शिकस्ता तन्हाइयों में कोई दीवार-ओ-दर से जाने क्या गुफ़्तुगू करे है हर ज़र्रा मै-कदा है ये तिश्नगी सलामत क्यूँ मातम-ए-शिकस्त-ए-जाम-ओ-सुबू करे है कुछ मो'तबर नहीं है अस्वद हो या कि मरमर इन पत्थरों के आगे क्या आरज़ू करे है कब का गुज़र चुका है दीवानगी का आलम फिर भी 'मजाज़' अपना दामन रफ़ू करे है