कुछ इस बला का तिरा रब्त-आश्ना होना कि हर जफ़ा का ब-अंदाज़ा-ए-वफ़ा होना सितम-शिआ'र तिरी आरज़ू पे क्या मौक़ूफ़ किसी ख़लिश का गवारा नहीं जुदा होना जहाँ में फिर न कहीं वज्ह-ए-रश्क हो जाए तिरे करम से मिरा मूरिद-ए-जफ़ा होना गुदाज़ इश्क़ से मा'मूर कर दिया मुझ को मुहाल है तिरे एहसान से अदा होना वो शौक़ में तिरे इज़हार-ए-नाज़ का आग़ाज़ वो मेरे हाल पे हर जौर का रवा होना हुआ वो दाद-ए-वफ़ा चाहने पे क्यों बरहम कोई गुनाह न था तालिब-ए-जज़ा होना शब-ए-फ़िराक़ वो हल्की सी इक शुआ-ए-उमीद वो सुब्ह तक मिरे जीने का आसरा होना बिसात-ए-दहर पे आसाँ नहीं है कुछ 'हिरमाँ' तिरी निगाह के आलम से आश्ना होना