कुछ तो बताते जाओ मासूम ज़िंदगी है तारीकियाँ कहाँ हैं किस जा पे रौशनी है बे-चेहरगी के क़िस्से इस में भरे पड़े हैं अपनी सदी भी कितनी बे-रंग सी सदी है इक रुख़ जहाँ की ख़ातिर इक रुख़ है मेरा अपना बाहर हँसी है लब पर अंदर से दिल दुखी है हम क्या बताएँ तुम को क्या रह गया है कहना ये ज़िंदगी हमारी हिजरत में कट गई है लगता है इस ज़मीं के दिन आ गए हैं नज़दीक बालिग़-नज़र मिरी ये महसूस कर रही है तेरे सितम से उस ने मेरा सुराग़ पाया बिजली जो आसमाँ से सर पर मिरे गिरी है मेरे क़रीब आ कर साथी वो मेरा बन कर मेरे ख़िलाफ़ साज़िश उस ने 'नज़र' रची है