कुछ दिनों तक ही शनासाई रही फिर मिरी शब मिरी तन्हाई रही रौनक़-ए-महफ़िल न आई काम कुछ ज़िंदगी जब ख़ुद से उकताई रही वक़्त-ए-रुख़्सत ख़ूब ही बरसी मगर आँखों में ग़म की घटा छाई रही धीरे धीरे ज़ख़्म आख़िर भर गए बस ज़रा सूरत ही कजलाई रही चलते चलते खो गए मंज़र कहीं आँख जिन की भी तमन्नाई रही ढल गया सूरज उजाले छीन कर रात के सर बज़्म-आराई रही याद आएगी कहाँ उस को 'सुमन' इश्क़ में अब वो न गहराई रही