निगाह-ए-मस्त से ओझल हैं मंज़िलें दिल की हैं अपनी आख़िरी साँसों पे चाहतें दिल की बहाए जाता है दरिया-ए-इश्क़ आख़िर तक भले ही लाख सँभाले हों धड़कनें दिल की ज़रा सी देर भी बैठा नहीं गया नज़दीक हवा सी हो गईं आवारा राहतें दिल की जो ख़ुद को क़ाबिल-ए-कार-ए-जहाँ भी रखना था तो हम भी ख़ाक ही कर डालें ख़्वाहिशें दिल की इसी में चैन-ओ-सुकूँ क्यों है जिस ने छीना है समझ से ही रहें बाहर हैं साज़िशें दिल की पकड़ रही हो थकन जब वजूद के बाज़ू उठाए कोई भला कैसे वहशतें दिल की ये किस गली से 'सुमन' इश्क़ अपना गुज़रा है लिपटती ही गईं दामन से उलझनें दिल की