कुछ इस तरह का अजब इम्तिहान देना पड़ा मुझे ज़मीं के एवज़ आसमान देना पड़ा तू जानता ही नहीं दीन-ए-मुस्तफ़ा क्या है हुसैन जाने जिसे ख़ानदान देना पड़ा जो मुझ पे अपने ही लश्कर से तीर आने लगे अदू से हट के मुहाफ़िज़ पे ध्यान देना पड़ा सिमट रहा था मिरा साया धूप के डर से दहकते साए को फिर साएबान देना पड़ा वो जानता है तिरी इक नज़र की क़ीमत को कि दिल के साथ जिसे इक जहान देना पड़ा वो बे-निशान था लेकिन मिरे तवस्सुत से फिर अपने होने का उस को निशान देना पड़ा भटक रहा था हथेली पे ले के अपना शबाब मुझे फिर उस को ये दिल का मकान देना पड़ा