क्या खोजते हैं मुझ में सर-ए-शाम ही चराग़ क्यों देखते हैं बाँधे मुझे टिकटिकी चराग़ जैसे किसी को रौशनी मतलूब ही नहीं बे-फ़िक्र हो के सोए पड़े हैं सभी चराग़ क़तअन जो एक पल भी जले ही न थे कभी इल्ज़ाम धर रहे हैं हवा पर वही चराग़ दोनों बने हैं मिट्टी से फिर ऐसा क्यों नहीं या'नी चराग़ आदमी और आदमी चराग़ मौजूद हूँ मैं फिर भी ज़रूरत नहीं मिरी गोया कि बन गई है मिरी ज़िंदगी चराग़ इस ख़ौफ़नाक आँधी का जब तक पता चला तब तक हमारे हाथों से वो ले उड़ी चराग़ यूँ डर रहे हो इस को जलाने से तुम 'अली' जैसे कि ये हो दुनिया का इक आख़िरी चराग़