मैं हूँ वो रिंद मिरे जाते ही मय-ख़ाने में मुँह सुराही भी छुपाने लगी पैमाने में वाह क्या वहशत-ए-दिल है कि इलाही तौबा घर में रहता हूँ मगर रहता हूँ वीराने में जिन से उम्मीद मैं रखता हूँ हज़ारों अफ़्सोस मेरे घर तक भी तकल्लुफ़ है उन्हें आने में शैख़ जी आज तो दस्तार-ए-फ़ज़ीलत भी नहीं रेहन क्या उस को भी रख आए हो मय-ख़ाने में दर्द सर का है बहाना तो कभी मेहंदी का रोज़ इक उज़्र है उन को मिरे घर आने में