कुछ रात की आहें होती हैं कुछ सुब्ह के नाले होते हैं बीमार-ए-अलम को फ़ुर्क़त के बस यही सँभाले होते हैं जब दर्द जिगर में उठता है इक हज़्ज़-ए-वस्ल सा मिलता है फ़ुर्क़त में तड़पते दिल के भी अंदाज़ निराले होते हैं मिल जाती है मंज़िल भी अक्सर राहों में भटकने वालों को जो मौत की घड़ियाँ गिनते हैं उन के भी सँभाले होते हैं इक ऐसा ज़माना आता है जब बिगड़ी क़िस्मत बनती है रातों की सियाही से आगे फिर दिन के उजाले होते हैं जब ज़ब्त की हद हो जाती है तब अश्क निकल ही जाते हैं आख़िर वो छलक ही पड़ते हैं लबरेज़ जो प्याले होते हैं जब फ़स्ल-ए-गुल आ जाती है वहशत भी जवाँ हो जाती है खिलते हैं चमन में जितने गुल वो पाँव में छाले होते हैं होते हैं हसीं शब के मंज़र हर रोज़ किसी की ज़ुल्फ़ों में उस वक़्त का आलम क्या कहिए जब माँग निकाले होते हैं वो आँख के खुलते ही लेकिन होती हैं गरेबाँ में अपने जो बाहें उन की गर्दन में हम ख़्वाब में डाले होते हैं आता है मोहब्बत में 'साक़िब' इक वक़्त भी ऐसा इंसाँ पर मरना भी नहीं होता आसाँ जीने के भी लाले होते हैं