शेर-गोई के इस आज़ार में शल होने तक मुस्तक़िल सोचता रहता हूँ ग़ज़ल होने तक तेरी क़ुर्बत से कई राज़ खुले हैं मुझ पर दिल मुअ'म्मा था मुझे इश्क़ में हल होने तक बिस्तर-ए-मर्ग पे हूँ और ये पूछूँ सब से नींद आ जाएगी क्या सुब्ह-ए-अजल होने तक धुंधले धुंधले से नज़र आते थे मंज़र मुझ को सिंफ़-ए-गोयाई को आँखों का बदल होने तक ख़ाक बस ख़ाक ही होती है रग-ए-जाँ के बग़ैर हुक्म बस हुक्म ही रहता है अमल होने तक कितने हाथों को क़लम कर दिया जाता है यहाँ तुर्बत-ए-इश्क़ को इक ताज-महल होने तक कल मुझे वस्ल के इम्कान बहुत हैं 'हर्षित' उम्र लगती है मगर आज से कल होने तक