कुछ तुझ से शिकायत मूए बे-पीर नहीं है क़िस्मत की ख़ता है तिरी तक़्सीर नहीं है काग़ज़ नहीं लिक्खा कोई तहरीर नहीं है क्यों निकलूँ तिरे बाप की जागीर नहीं है मिस्री यूँ ही बिकती है ज़रा चख के तो देखो ये पीच है चावल की अजी खीर नहीं है वो चाँदनी फिर ला के हवाले मिरे कर दें ऐसी तो उजागर मिरी तक़दीर नहीं है इक जान से दो जान तो होनी नहीं हरगिज़ या मैं नहीं या अब तिरी हम-शीर नहीं है सोना भी जो छूती हूँ तो हो जाता है मिट्टी इक्सीर भी मेरे लिए इक्सीर नहीं है ये सास मुई चाहे जो कुछ उन से लगाए इस में तो मिरी कोई भी तक़्सीर नहीं है खाना कोई क्या हाथ से फिर अपने निकाले डोई नहीं चमचा नहीं कफ़-गीर नहीं है बेटी नहीं देती तुम्हें देती हूँ मैं लौंडी दौलत नहीं रखती कोई जागीर नहीं है वो तौक़ तो रख आए थे पहले ही जूए में अब देखती हूँ आज तो ज़ंजीर नहीं है 'शैदा' को ज़बाँ-दानी की कुछ दाद तो मिलती अफ़सोस कि इस वक़्त बुआ 'मीर' नहीं है