कुंज-ए-हैरत से चले दश्त-ए-ज़ियाँ तक लाए कौन ला सकता है हम दिल को जहाँ तक लाए एक हंगामा बपा है पस-ए-दीवार-ए-बदन है किसे ताब-ए-सुख़न कौन ज़बाँ तक लाए ठीक है चश्म-ए-तग़ाफ़ुल ये तिरी देन सही ताब ज़ख़्मों की मगर कोई कहाँ तक लाए आँख वीराँ थी किसी दश्त-ए-तपाँ की सूरत हम इसे सिलसिला-ए-आब-ए-रवाँ तक लाए चल निकलती है तो फिर लब पे भी आ जाती है लाने वाले की ये मर्ज़ी है जहाँ तक लाए 'ऐन-मुमकिन है ठहर जाए सज़ा-वार-ए-करम हम यही सोच के दिल कू-ए-बुताँ तक लाए तुझ को जो चाहिए बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर लेता जा कौन काफ़िर है कि जो दिल में गुमाँ तक लाए