महव कर डाली किसी ने दिल से मेरी याद तक हो नहीं सकती मगर इस ज़ुल्म पर फ़रियाद तक वहशतें इतनी बढ़ी हैं कारोबार-ए-शौक़ में दूर मुझ से भागता है अब मिरा हम-ज़ाद तक तेरी मेरी लग़्ज़िशों पर ही कहाँ मौक़ूफ़ है बात चल निकली तो फिर जाएगी ये अज्दाद तक सोचता हूँ क्या करेंगे इंदिमाल-ए-दर्द-ए-दिल ग़ौर से सुनते नहीं हैं जो मिरी रूदाद तक बन गए इंसान अपनी ज़ात में जंगल 'मुनीर' उड़ गई है बस्तियों से बू-ए-आदम-ज़ाद तक