कुशूद-ए-कार की ख़ातिर ख़ुदा बदलते रहे चराग़-ए-नज़्र थे हर आस्ताँ पे चलते रहे फ़क़ीर-ए-इश्क़ हैं अपना कोई ठिकाना है क्या हवा में उड़ते रहे पानियों पर चलते रहे हम अहल-ए-दिल ने छुआ तक नहीं कभी कोई फूल हवा-परस्त मगर तोड़ते मसलते रहे फिसल के तुम भी अबस सुन गए हमारे साथ हमें तो यूँ भी फिसलना था सो फिसलते रहे न उस के लम्स की गर्मी न उस के क़ुर्ब की आँच तसव्वुर उस का था ऐसा कि बस पिघलते रहे वो इक जगह न कहीं रह सका और उस के साथ किराया-दार थे हम भी मकाँ बदलते रहे