तिरा ग़म है तो ये जज़्बों की रौ में बह नहीं सकता किसी के हक़ में मेरा दिल ग़लत कुछ कह नहीं सकता हवा अच्छी है उस की और न पानी उस का अच्छा है मैं इस शहर-ए-मुनाफ़िक़ में तो इक दिन रह नहीं सकता ये शहर-ए-दिल नहीं बस्ती है ये फ़तवा फ़रोशों की यहाँ अपने ख़ुदा को मैं ख़ुदा भी कह नहीं सकता ज़मीं सूरज के चारों-सम्त गर्दिश अब भी करती है ये सच है फिर भी मैं अपनी ज़बाँ से कह नहीं सकता पलट कर इक-न-इक दिन अपनी फ़ितरत पर वो आएगा वो कट कर अपने मेहवर से हमेशा रह नहीं सकता मैं इंसाँ हूँ मिरी फ़ितरत ज़मीनी है मियाँ-'नजमी' बहुत दिन तक सर-ए-बाम-ए-फ़लक मैं रह नहीं सकता