क्या जुर्म है ये हाल तो जाने ख़ुदा-ए-मौत हर नफ़्स के लिए है मगर याँ सज़ा-ए-मौत कहती है 'अक़्ल मौत ये है बहर-ए-ज़िंदगी वो ज़िंदगी कि जो नहीं होगी बराए-मौत दुनिया की ज़िंदगी तो है इक जुज़्व-ए-मौत ही इस का नतीजा हो नहीं सकता सिवाए मौत साँचा ये ज़िंदगी है फ़क़त रूह के लिए जब ढल चुके तो साँचे को जाएज़ है आए मौत कैसी ढली इसी का है लाज़िम हमें ख़याल ने'मत बनाएँ मौत को क्यों हो जफ़ा-ए-मौत होता है ग़म ज़रूर मगर कुछ है मस्लहत अल्लाह कर दे तब' को राज़-आश्ना-मौत