क्या करते कहीं और ठिकाना ही नहीं था वर्ना हमें इस कूचे में आना ही नहीं था हंगामा-ए-वहशत था जहाँ जश्न-ए-जुनूँ में देखा तो वहाँ कोई दिवाना ही नहीं था वो दिल की लगी है कि बुझाए नहीं बुझती कल रात गले उस को लगाना ही नहीं था मिलता है तो अब आँख मिला भी नहीं पाता वो ख़्वाब उसे याद दिलाना ही नहीं था जब देखो उसी याद के नर्ग़े में पड़े हो ये हाल अगर है तो भुलाना ही नहीं था तारीकी-ए-सहरा में डराती है इक आवाज़ यूँ दिल को सर-ए-शाम बुझाना ही नहीं था वो शख़्स जिसे सोच के आँखों में गई रात 'महफ़ूज़' उसे ध्यान में लाना ही नहीं था