मुझ से क्या और अब आख़िर ये हवा चाहती है एक दीवार थी सो वो भी गिरा चाहती है मौसम-ए-गुल में सलामत रहे दामन या-रब फिर कोई ताज़ा कली दिल में खिला चाहती है तेरी सूरत हो समाअ'त में नुमायाँ जिस से ख़ामुशी अपनी वही रंग-ए-सदा चाहती है मैं कि डरता हूँ बहुत रात के सन्नाटे से और वहशत है कि अब दर भी खुला चाहती है जिस की दौलत से हम अक्सर तुझे पा लेते थे दिल की छोटी सी निशानी वो मिटा चाहती है