क्या कुछ मिला न हम को महरूमी-ए-नज़र से कुछ दाव मुस्तनद से कुछ ज़ख़्म मो'तबर से छेड़ो न साज़ दिल का सहमी हुई नज़र से बढ़ती है बे-क़रारी तस्कीन-ए-मुख़्तसर से कितनी बदल गई हैं इंसानियत की क़द्रें हम ज़िंदगी के हाथों ख़ुद ज़िंदगी को तरसे कितनी बुलंद हिम्मत हैं ज़िंदगी की नज़रें टकरा रही हैं बढ़ कर अब वक़्त की नज़र से काम आई अपने 'अख़्तर' दीवानगी ख़ुद अपनी बच बच के चल रहे हैं हर एक की नज़र से