क्या क्या ब-दस्त-ए-ग़ैब सभी ने लिया न था लेकिन मिरी वफ़ा का कोई भी सिला न था आवाज़ा-ए-रक़ीब से उलझे हैं बार बार तुझ से शिकायतों का मगर हौसला न था उस की नवाज़िशों पे न इतराओ दोस्तो मुझ पर करम वो था कि किसी पर हुआ न था लेते हैं बार बार वो ऐसे ख़ुदा का नाम दुनिया में जैसे और किसी का ख़ुदा न था रस्ते दयार-ए-दिल के भी कितने अजीब थे सब राह-रौ थे कोई यहाँ रहनुमा न था दिल ने तो अपनी बात कही सब के रू-ब-रू दिल था मुनाफ़िक़त से कभी आश्ना न था शीशा-गरों ने उस की बसीरत भी छीन ली आँखें थीं उस के पास मगर देखता न था नादीदा मंज़िलों के मुसाफ़िर थे कितने लोग चलना था जिन का काम मगर आसरा न था क्या बुझ गए थे मेरे ही घर के सभी चराग़ या शहर भर में दिया भी जला न था उस गुल का आब-ओ-रंग ही था रू-कश-ए-बहार जो गुल दरून-ए-शाख़ था लेकिन खिला न था क़ातिल तो और भी थे बहुत शहर-ए-दर्द में तुझ सा मगर 'जमील' कोई दूसरा न था