क्या तुम को बताऊँ हम-नफ़सो क्यों ज़ब्त का दामन छोड़ दिया सीने में तपिश कुछ ऐसी थी इक दाग़ को रौशन छोड़ दिया आदाब-ए-जुनूँ थे पेश-ए-नज़र और होश था इतना वहशत में अपना जो गरेबाँ याद आया उस शोख़ का दामन छोड़ दिया तूफ़ाँ का गुज़र सय्याद का डर कुछ भी तो न था उस मामन में काँटों की तलब ही थी शायद ख़ुद अपना नशेमन छोड़ दिया कब तक मैं रहीन-ए-दर्द रहूँ कब तक मिरा दामन चाक रहे जब याद बढ़ी कुछ हद से सिवा तो नाला-ओ-शेवन छोड़ दिया अब ज़ौक़-ए-असीरी उस को कहें या कम-निगही अपनी 'मंज़र' ज़ंजीर नहीं जब पाँव में क्यों कूचा-ओ-बर्ज़न छोड़ दिया हंगाम-ए-बहाराँ है शायद पूछो तो ज़रा क्यों 'मंज़र' ने यूँ आबला-पा होने के लिए फिर गोशा-ए-गुलशन छोड़ दिया