क्यों है चिलमन से निकाले रुख़-ए-ताबाँ कोई

क्यों है चिलमन से निकाले रुख़-ए-ताबाँ कोई
क्या निकलने को है दिल से मिरे अरमाँ कोई

छोड़ कर मेरी तरफ़ नावक-ए-मिज़्गाँ कोई
हो गया लेने को तय्यार दिल-ओ-जाँ कोई

दहन-ए-ज़ख़्म में भर आए न पानी क्यूँकर
दूर से मुझ को दिखाता है नमक-दाँ कोई

मर रहूँ होगी जभी मुझ को रिहाई ग़म से
और तो कोई न सूरत है न उनवाँ कोई

दिल ये समझा कि अनीस एक ख़ुदा ने भेजा
टूट कर रह गया पहलू में जो पैकाँ कोई

बैठ कर ग़ौर से क्यों देख रहे हो मुझ को
सोचते क्या हो मिरे दर्द का दरमाँ कोई

रखते हैं तर्क-ए-मोहब्बत का वो मुझ पर इल्ज़ाम
जिस को उल्फ़त न हो ऐसा भी है इंसाँ कोई

तुम जो कहते थे कि मरता भी नहीं मर गए हम
ऐसा पाओगे न अब ताब-ए-फ़रमाँ कोई

जब कहा क़त्ल करो मुझ को तो क़ातिल ने कहा
क्यों हर इक शख़्स पे करने लगा एहसाँ कोई

ज़ेर-ए-तुर्बत भड़क उठता है मिरा शो'ला-ए-इश्क़
क़ब्र पर आ के जो करता है चराग़ाँ कोई

क़त्ल के बाद नदामत का नहीं जब कुछ असर
दफ़्न कर के मुझे क्या होगा पशेमाँ कोई

कुछ नहीं ख़ातिर-ए-बरहम पे असर गेसू का
क्या करे ख़ाक परेशाँ को परेशाँ कोई

इख़्तियार आप को है दिल से सुनें या न सुनें
शे'र 'हामिद' का नहीं आयत-ए-क़ुरआँ कोई


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