तुझ से रह रह कर मुझे आती है क्या क्या बू-ए-दोस्त दिल हुआ जाता है मुज़्तर ऐ हवा-ए-कू-ए-दोस्त आदमी ही कुछ नहीं महव-ए-क़द-ए-दिल-जू-ए-दोस्त देख कर हैरान हैं जिन्न-ओ-मलक भी रू-ए-दोस्त अपने दिल में ख़ुश न हो क्यों देख कर वो सू-ए-दोस्त है हिलाल-ए-ईद आशिक़ को ख़म-ए-अबरू-ए-दोस्त छूटना दुश्वार हो जाता है दाम-ए-इश्क़ से फाँस लेता है गला कुछ इस तरह गेसू-ए-दोस्त वाइ'ज़ो हम क्या करेंगे ले के फ़िरदौस-ए-बरीं बाग़-ए-जन्नत से कहीं बेहतर हमें है कू-ए-दोस्त ख़ैर अपनी जान की हम को नज़र आती नहीं तेग़-ए-दुश्मन से है बढ़ कर ख़ंजर-ए-अबरू-ए-दोस्त ख़ाक मिल जाती जो अपनी उस के दर की ख़ाक से है कहाँ ऐसा मुक़द्दर ऐ नसीम-ए-कू-ए-दोस्त जज़्ब-ए-उल्फ़त से नहीं कुछ कम कशिश भी हुस्न की बैठे बैठे दिल खिचा जाता है 'हामिद' सू-ए-दोस्त