क्यों हो न हमें इश्क़-ए-सनम और ज़ियादा देता है मज़ा इश्क़ का ग़म और ज़ियादा दिल तो एवज़-ए-बोसा दिया तुम ने जिगर भी ली मुफ़्त में ये एक रक़म और ज़ियादा लिखता हूँ तुझे तेरी रुकावट का जो शिकवा चलता है मिरा रुक के क़लम और ज़ियादा देता हूँ तिरी शोख़ निगाहों से ही तश्बीह रम करते हैं आहू-ए-हरम और ज़ियादा पसपा न हुआ क़ैस से मैदान-ए-वफ़ा में बढ़ता ही रहा अपना क़दम और ज़ियादा हो जाते हैं जब हम से कशीदा तिरे अबरू खींचती है तिरी तेग़-ए-दो-दम और ज़ियादा होता हूँ 'दिलेर' उन से जो मैं लुत्फ़ का ख़्वाहाँ वो करते हैं रह रह के सितम और ज़ियादा