क्यों न तड़पा दे जहाँ को सोख़्ता-जानों की बात मुज़्तरिब करती है इंसानों को इंसानों की बात दिल-शिकस्ता हौसले हैराँ निगाह-ए-आरज़ू ज़िंदगी को रास कब आई सनम-ख़ानों की बात तीरगी-ए-गेसू-ए-हस्ती का आलम क्या कहें दिल ही दिल में घुट के रह जाती है अरमानों की बात आम होता जा रहा है क़िस्सा-ए-जाम-ओ-सुबू खुल रही है अहल-ए-दिल पर आज पैमानों की बात अब निखरते जा रहे हैं आरिज़-ए-हुस्न-ए-हयात हो रही है सुर्ख़-रू ख़ूँ-गश्ता अरमानों की बात तिश्नगी लौ दे रही है आरज़ू-ए-ज़ीस्त को ढल रही है आग के शो'लों में पैमानों की बात तीरगी-ए-दह्र में ऐश-ओ-तरब की दास्ताँ 'फ़ैज़' वीराने में हो जैसे गुलिस्तानों की बात