राहत-ए-ज़ीस्त के सामान कहाँ मिलते हैं आदमी मिलते हैं इंसान कहाँ मिलते हैं ज़िंदगी शौक़-ए-मुसलसल में ढली जाती है मेरे ख़्वाबों के परिस्तान कहाँ मिलते हैं आओ सैलाब ओ हवादिस से गुज़रना सीखो लोग पर्वर्दा-ए-तूफ़ान कहाँ मिलते हैं जो मिरे कुफ़्र-ए-मोहब्बत को गवारा कर लें इस क़दर साहिब-ए-ईमान कहाँ मिलते हैं हम को तकमील-ए-इमारत में ग़नीमत जानो हम से मजबूर-ओ-परेशान कहाँ मिलते हैं साहबो शम्अ ज़मीरों की बुझा कर आओ यूँ वज़ारत के क़लमदान कहाँ मिलते हैं ग़म-गुसारों की रिवायात-ए-वफ़ा में 'अफ़्सूँ' दिल की तस्कीन के सामान कहाँ मिलते हैं