क्यों उलझते हैं मियाँ इश्क़ के बीमारों से हाथ जल जाएँगे मत खेलिए अंगारों से क़ैद-ए-हस्ती से मिलेगी मुझे कब जाने नजात कब तलक फोड़ूँगा सर जिस्म की दीवारों से साहब-ए-जुब्बा-ओ-दस्तार से तो कुछ न हुआ ऐ ख़ुदा काम कोई ले ले गुनहगारों से आप दीवार से लग जाएँ न ग़फ़लत में कहीं आप हुशियार रहें हाशिया-बर्दारों से बात जाएज़ भी अगर है तो नहीं मानते हैं मुझ को शिकवा है यही उन के तरफ़-दारों से हसरतें हूक बहुत दिल में उठाती हैं 'वसीम' हो के मायूस पलट आता हूँ बाज़ारों से