लरज़ रहा था मैं अहवाल अर्ज़ करते हुए ज़बान खोली थी मैं ने बहुत ही डरते हुए तुम्हारी शान में मुझ को क़सीदा पढ़ना है ख़िलाफ़ अपनी तबीअत के जंग करते हुए यही मैं सोच के पैहम सवाल करता हूँ कि शर्म आएगी इक दिन उसे मुकरते हुए भँवर बहुत थे मगर ज़ीस्त के समुंदर में किनारे लग ही गया डूबते उभरते हुए वही गुनाह जो आज़ार-ए-जिस्म-ओ-जाँ था 'वसीम' वही गुनाह सताता रहा है मरते हुए