लब-ए-फ़ुरात कहाँ हम क़ियाम करते हैं कि हम तो तिश्ना-लबी को सलाम करते हैं चढ़ाएँ किस लिए पत्थर पे फूल की चादर बुरीदा लाशों का जो एहतिराम करते हैं वही असीर हिलाते हैं कज-कुलाही को कि हर नफ़स को जो ज़िंदान-ए-शाम करते हैं वो आ रहा है अगर आँधियाँ जिलौ में लिए दियों का हम भी चलो एहतिमाम करते हैं वहीं पे झाड़ के उठते हैं फिर मता’-ए-हयात कि ज़िंदगी को जहाँ जिस के नाम करते हैं सुरूर और ही होता है ख़ुद-कलामी का हम अपने आप से अक्सर कलाम करते हैं