मैं दुनिया देख कर हैरत-ज़दा थी सो मेरी 'अक़्ल की ये इंतिहा थी मैं तूफ़ानों में कैसे घिर गई हूँ मैं गिर्द-ओ-पेश से जब आश्ना थी दोराहा राह में हर पल मिला है मिरा हर इक क़दम इक इब्तिदा थी सर-ए-राहे मुझे क्यों रख दिया है तिरे हुजरे का मैं तन्हा दिया थी इसी इक बात से था ज़ेहन ख़ाली वही जो बात मुझ को सोचना थी मुझे खो कर बहुत वो मुतमइन था वहाँ मेरी कमी अपनी जगह थी